आओ कभी … मेरी खिड़की में बैठो…
कुछ गाओ , कुछ गुनगुनाओ
कुछ हंसो , कुछ मुस्कुराओ
कुछ खिलखिलाओ , कुछ फुसफुसाओ ;
और आओ …
करें कुछ चुगलियां , कहें कुछ चुटकुले
करें कुछ कानाफूसी , लगाएं कुछ कहकहे
करें कुछ गपसप , और कुछ गिले शिकवे
कहें कुछ किस्से सुने सुनाये , कुछ अनकहे ;
आओ कभी अलसाई लसलसी सी दोपहरी में …
मेरी गरम अदरखि चाय के घूंटो में
करवट बदलती खूबसूरत कहानियों की
चुनिंदा चर्चरी चुस्कियां हैं ;
आओ कभी शबनमी धुँधली सी शाम ढले …
मेरी पुरानी रक्तिम शराब के प्यालों में
सलवटें और खुमारियों भरे
दबे -पावं रिश्तों के नशीले लम्हे हैं ;
आओ कभी फटे पन्नों वाली पुरानी किताब में …
ढूंढे अपने आप को , या फिर खो जाएँ ,
और उसकी लज़ीज़ लिपटवां खुसबू में
लपेट लें वो अरमान अर्सों पुराने ;
आओ सुलझा लें मांझे को , जिसमे उलझी है …
पतंगो सी उमंगें और ख्वाहिशें ,
अतीत की मुंडेर पे बैठ दो पल …
आओ करें कुछ ऎसी बातें मुलाकातें ;
आओ कभी ऐ जिंदगी , के एक मुद्दत हुई ,
आओ के सहला जाओ , तुम मुझे बहला जाओ ,
झरोके मेरे खुले हैं , अपने खोल दो ,
झांको , मत झिझको , मत जाओ , रुक जाओ , रह जाओ .
आओ कभी … मेरी खिड़की में बैठो …
कुछ कहो …
या फिर कहने दो खामोशियों को…
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